सत्रहवें
दिन से पहले तक, कर्ण का युद्ध अर्जुन के अतिरिक्त सभी
पांडवों से हुआ। उसने महाबली भीम सहित पाण्डवों को एक-पर-एक रण में परास्त किया, पर माता कुंती को दिए वचनानुसार उसने
किसी भी पाण्डव की हत्या नहीं की। सत्रहवें दिन के युद्ध में अन्तत: वह
घड़ी आ ही गई, जब कर्ण और अर्जुन आमने-सामने आ गए। इस
शानदार संग्राम में दोनों ही बराबर थे। कर्ण को उसके गुरु परशुराम द्वारा विजय
नामक धनुष भेंट स्वरूप दिया गया था, जिसका
प्रतिरूप स्वयं विश्वकर्मा ने बनाया था।
दुर्योधन
के निवेदन पर पाण्डवों के मामा शल्य कर्ण के सारथि बनने के लिए तैयार हुए। क्योंकि
अर्जुन के सारथी स्वयं श्रीकृष्ण थे और कर्ण किसी भी मामले में अर्जुन से कम ना हो
इसके लिए शल्य से सारथी बनने का निवेदन किया गया। महाराज शल्य में वे सभी गुण
विद्यमान थे, जो एक योग्य सारथी में होने चाहिए।
अर्जुन
तथा कर्ण के मध्य हो रहे युद्ध की यह भी विशेषता थी कि जब अर्जुन के बाण कर्ण के
रथ पर लगते तो उसका रथ कई गज पीछे खिसक जाता, किन्तु
जब कर्ण के बाण अर्जुन के रथ पर लगते तो उसका रथ केवल कुछ ही बालिश्त दूर खिसकता।
इस पर श्रीकृष्ण ने कर्ण की प्रशंसा की। चकित होकर अर्जुन ने कर्ण की इस प्रशंसा
का कारण पूछा, क्योंकि उसके बाण रथ को पीछे खिसकाने
में अधिक प्रभावशाली थे।
तब
श्रीकृष्ण ने कहा कि - "कर्ण के रथ पर केवल कर्ण और शल्य का भार है, किन्तु अर्जुन तुम्हारे रथ पर तो स्वयं
तुम, मैं और वीर हनुमान भी विराजमान हैं, और तब भी कर्ण ने उनके रथ को कुछ
बालिश्त पीछे खिसका दिया।"
युद्ध
में कर्ण ने कई बार अर्जुन के धनुष की प्रत्यंचा काट दी, किन्तु हर बार अर्जुन पलक झपकते ही
धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा लेता। इसके लिए कर्ण अर्जुन की प्रशंसा करता है और शल्य से
कहता है कि- "वह अब समझा कि क्यों अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कहा जाता
है।"
कर्ण
और अर्जुन ने दैवीय अस्त्रों को चलाने के अपने-अपने ज्ञान का पूर्ण उपयोग करते हुए
बहुत लंबा और घमासान युद्ध किया। कर्ण द्वारा अर्जुन का सिर धड़ से अलग करने के
लिए 'नागास्त्र' का प्रयोग किया गया, किन्तु श्रीकृष्ण द्वारा सही समय पर रथ
को भूमि में थोड़ा-सा धँसा लिया गया, जिससे
अर्जुन बच गया। इससे 'नागास्त्र' अर्जुन के सिर के ठीक ऊपर से उसके
मुकुट को छेदता हुआ निकल गया।
नागास्त्र पर उपस्थित अश्वसेना नाग ने कर्ण से
निवेदन किया कि वह उस अस्त्र का दोबारा प्रयोग करे ताकि इस बार वह अर्जुन के शरीर
को बेधता हुआ निकल जाए, किन्तु कर्ण ने माता कुंती को दिए वचन
का पालन करते हुए उस अस्त्र के पुनः प्रयोग से इन्कार कर दिया।
यद्यपि
युद्ध गतिरोधपूर्ण हो रहा था, किन्तु
कर्ण तब उलझ गया, जब उसके रथ का एक पहिया धरती में धँस
गया। वह अपने को दैवीय अस्त्रों के प्रयोग में भी असमर्थ पाता है, जैसा की उसके गुरु परशुराम का शाप था।
तब कर्ण अपने रथ के पहिए को निकालने के लिए नीचे उतरा और अर्जुन से निवेदन किया कि
वह युद्ध के नियमों का पालन करते हुए कुछ देर के लिए उस पर बाण चलाना बंद कर
दे।"
तब श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं- "कर्ण को कोई अधिकार नहीं है कि वह अब युद्ध नियमों और धर्म की बात करे, जबकि स्वयं उसने भी अभिमन्यु के वध के समय किसी भी युद्ध नियम और धर्म का पालन नहीं किया था।" उन्होंने आगे कहा कि "तब उसका धर्म कहाँ गया था, जब उसने दिव्य-जन्मा द्रौपदी को पूरी कुरु राजसभा के समक्ष वैश्या कहा था। द्युत-क्रीड़ा भवन में उसका धर्म कहाँ गया था। इसलिए अब उसे कोई अधिकार नहीं की वह किसी धर्म या युद्ध नियम की बात करे।" उन्होंने अर्जुन से कहा कि "अभी कर्ण असहाय है, इसलिए वह उसका वध करे।"
श्रीकृष्ण
कहते हैं कि "अर्जुन यदि तुमने इस निर्णायक मोड़ पर अभी कर्ण को नहीं मारा तो
संभवतः पाण्डव उसे कभी भी नहीं मार सकेंगे और यह युद्ध कभी भी नहीं जीता जा
सकेगा।" तब अर्जुन ने एक दैवीय अस्त्र का उपयोग करते हुए कर्ण का सिर धड़ से
अलग कर दिया। कर्ण के शरीर के भूमि पर गिरने के बाद एक ज्योति कर्ण के शरीर से
निकली और सूर्य में समाहित हो गई। तदनन्तर राजा शल्य कौरव सेना के सेनापति हुए, किन्तु वे युद्ध में आधे दिन तक ही टिक
सके। दोपहर होते-होते युधिष्ठिर ने उन्हें मृत्युलोक पहुँचा दिया।
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