मैं सलमान रूश्दी की किताब 'इमेजनरी होमलैंड्स' में एडवर्ड सईद से उनकी एक बातचीत पढ़ रहा था। सलमान इस्लाम के मुखर-आलोचक हैं- नायपॉल, मार्टिन एमिस, अयान हिरसी की तरह- अलबत्ता वे इस्लाम की आलोचना दक्षिणपंथी दृष्टि से नहीं करते, बल्कि एक उदारवादी-मानवीय-प्रगतिशील दृष्टि से करते है।
ये और बात है कि इस्लाम की किसी भी तरह की आलोचना करने वालों की 'ब्रैकेटिंग' बहुत 'डेस्पेरेट' तरीक़े से एक 'फ़ासिस्ट' की तरह किए जाने की वृत्ति इधर बहुत बलवती हुई है, प्रश्न पूछने को ही कुफ्र मान लिया गया है।
बहरहाल, एडवर्ड सईद वेस्ट-ईस्ट कॉन्फ़्लिक्ट के व्याख्याकार और फ़लस्तीनी-संघर्ष के प्रति कोमल रुख़ रखने वाले बुद्धिजीवी रहे हैं, ये और बात है कि 'प्रोफ़ेसर ऑफ़ टेरर' कहकर उन पर कटाक्ष किया जाता रहा है।
बातचीत के दौरान सईद ने फ़लस्तीनी पहचान के बारे में एक बड़ी दिलचस्प बात कही। उन्होंने कहा, "फ़लस्तीनी-अनुभव एकाधिक हैं, जिन्हें एक धारा में नहीं पिरोया जा सकता। अगर लेबनॉन का ही इतिहास लिखने बैठें तो उसके अनेक समुदायों का अलग-अलग इतिहास लिखना होगा। लेबनॉन में सुन्नी, शिया, ऑर्थोडॉक्स और मैरोनाइट्स (ईसाइयों का एक एथनोरिलीजियस समूह) के बीच तीखे टकरावों का एक लम्बा इतिहास रहा है।"
एडवर्ड सईद यह इशारा करते हैं कि इज़रायल से टकराव के संदर्भ में फ़लस्तीनी-पहचान का पुनर्सीमन होता है, उसमें एकरूपता आती है, अलबत्ता फ़लस्तीनी-पहचान स्वयं ऐतिहासिक रूप से विखण्डित रही है। ये पहली बात।
दूसरी बात जो एडवर्ड सईद ने रेखांकित की वो यह है कि "फ़लस्तीनी-प्रतिकार का सम्बंध अरब-राष्ट्रवाद से है और यह विडम्बना ही है कि अरब-राष्ट्रवाद का सम्बंध अरब-ऑइल-बूम से है!"
तीसरी ग़ौरतलब बात एडवर्ड सईद फ़रमाते हैं कि "यरूशलम के यहूदी अपनी पहचान को फ़लस्तीनी-यहूदी या अरबी-यहूदी के रूप में रेखांकित करते हैं।"
फ़लस्तीन-इज़रायल संघर्ष के परिप्रेक्ष्य में- मैंने देखा कि- उदारवादी बौद्धिकों द्वारा फ़लस्तीन के हक में महात्मा गांधी के कुछ कथनों को साझा किया गया। मुझे नहीं मालूम, वैसा उन्होंने कितने सचेत रूप से किया, या ऊपरी तौर पर फ़लस्तीन के हक़ में कोई भी आवाज़ सुनाई देने पर वो यों ही फिसल पड़े।
किंतु महात्मा गांधी को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा कि- "यहूदियों के लिए अलग देश की मांग मुझे ख़ास नहीं जंचती!" ये और बात है कि मुसलमानों के लिए अलग देश की मांग पर गांधी इससे कहीं अधिक व्यथित थे, क्योंकि वो देख सकते थे कि यह मांग भारतीय-उपमहाद्वीप के आने वाले कल को हमेशा के लिए अंधकार में झोंक देने वाली है- किंतु इसकी कोई दत्तचित्त मीमांसा मुझे उदारवादी बौद्धिकों के यहाँ नहीं मिलती। यहूदियों के लिए अलग राष्ट्र और मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्र- इसको वो भिन्न श्रेणियाँ समझते हैं- एक को अनुचित, दूसरी को अवश्यम्भावी या स्वाभाविक मानते हैं।
आगे, महात्मा गाँधी के 1938 के हरिजन में प्रकाशित एक लेख को उद्धृत करते हुए उदारवादी बौद्धिक कहते हैं कि गाँधी ने कहा- "जैसे अंग्रेज़ों के लिए इंग्लैंड हैं, फ्रैंच के लिए फ्रांस, उसी तरह फ़लस्तीनियों के लिए अरब।"
इस कथन की व्याख्या करते हुए आप पूछ सकते हैं कि भारत किसके लिए है? कहा जाएगा, भारत भारतीयों के लिए है। तिस पर पूछा जाएगा कि भारतीय कौन हैं? सांस्कृतिक-राष्ट्रवाद का तो तर्क ही है कि हिंदुस्तान में रहने वाले मुसलमान हिंदू-मुसलमान या हिंदी-मुसलमान हैं और हिंदुस्तान में रहने वाले ईसाई हिंदू-ईसाई या हिंदी-ईसाई हैं, (जैसे एडवर्ड सईद ने यरूशलम के यहूदियों की फ़लस्तीनी-यहूदी या अरबी-यहूदी के रूप में पहचान को ज़ाहिर किया था।)
अंग्रेज़ों के लिए इंग्लैंड, फ्रैंच के लिए फ्रांस, फ़लस्तीनियों के लिए अरब, हिंदुस्तानियों के लिए हिंदुस्तान- इस आशय के कथनों की व्याख्या तब कैसे की जाए, क्योंकि अंग्रेज़, फ्रैंच, फ़लस्तीनी, हिंदुस्तानी- ये तमाम राष्ट्रीयताएँ हैं और इज़रायल-फ़लस्तीन संघर्ष के मूल में सामुदायिक संघर्ष का प्रश्न है। वहाँ दो अब्राहमिक-कल्ट, जो अपने समुदाय को एक राष्ट्र की तरह देखते हैं, के बीच क्लासिकल टकराव है। अलबत्ता, जैसा कि एडवर्ड सईद ने फ़रमाया, वहाँ पर यहूदी नहीं होते, तब भी सुन्नी, शिया, ऑर्थोडॉक्स और मैरोनाइट्स तो लड़ ही रहे थे।
भारत के उदारवादी बौद्धिकों से मेरी शिकायत यह है कि किसी भी जटिल समस्या की व्याख्या वो उसमें निहित बहुस्तरीय आशयों और समीकरणों को समझकर नहीं करते, बल्कि निहायत स्थूल रूप से इस दृष्टिकोण से करते हैं कि फलां परिस्थिति में वृहत्तर इस्लामिक-अस्मिता के हित में कौन-सी एप्रोच मुफ़ीद रहेगी। वो अपनी री-पोज़िशनिंग और री-एलाइनमेंट इस्लाम के लिए क्या कम्फ़र्टेबल है, वैसा सोचकर करते हैं। हो सकता है उनके दिल में इस्लाम के लिए सहानुभूति उतनी ना हो, जितनी कि सत्ताधारी पार्टी- जो कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की राजनीति करती है- के प्रति विद्वेष हो।
किंतु इस होड़ में इस्लामिक-समस्या के दुरूह पहलुओं की परख करने वाले किसी भी स्वतंत्रचेता बौद्धिक को फ़ासिस्ट कर देने, उसकी पुस्तकों को पढ़े बिना उसके लेखन को कूड़ा कहकर निरस्त कर देने की जो हवस है, वह अपने आपमें बहुत नैतिक नहीं है, बौद्धिक तो क़तई नहीं है। श्रेयस्कर तो यही होता कि किसी व्यक्ति के प्रकाशित-लेखन को बाक़ायदा पढ़कर फिर उसकी समुचित समालोचना की जाती।
जब वो महात्मा गाँधी को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि "जैसे अंग्रेज़ों के लिए इंग्लैंड हैं, फ्रैंच के लिए फ्रांस, उसी तरह फ़लस्तीनियों के लिए अरब" तो उनको बतलाना चाहिए कि इस कथन में राष्ट्र, समुदाय, नस्ल और बहुसंस्कृतिवाद के सम्बंधों की कैसी निर्मिति है?
क्या मनुष्य-सभ्यता का विभाजन किन्हीं राष्ट्रीयताओं में किया जा सकता है, जिसमें हर राष्ट्र पर पहला अधिकार उसकी राष्ट्रीय-पहचान से वास्ता रखने वाले नागरिकों को होगा? ये राष्ट्रीय-पहचान किस आधार पर तय होती है, क्योंकि तब तो "अरबी-यहूदी" भी फ़लस्तीन पर अपना दावा पेश कर सकते हैं? क्या इसके मूल में यह भावना है कि जिस धरती पर जो पहले से बसा हो वह उसकी है, और शेष उसके लिए बाहरी हैं? ये एक ख़तरनाक दिशा में ले जाने वाले प्रश्न हैं।
महात्मा गाँधी ने वर्ष 1938 में जब वो बात कही, तब उन्हें कहाँ अनुमान था कि स्वयं उनके देश में पृथक राष्ट्र की ख़्वाहिश सुगबुगा रही है, क्योंकि "यहूदियों के लिए अलग देश की मांग मुझे ख़ास नहीं जंचती!" को आगे बढ़ाकर आप "मुसलमानों के लिए अलग देश की मांग मुझे ख़ास नहीं जंचती!" तक भी ले जा सकते हैं, और जितना मैं महात्मा गाँधी को जानता हूँ, वो अपनी बौद्धिक-नैतिकता में यथासम्भव कंसिस्टेंट थे और दो पक्षों के लिए दो अलग प्रतिमान नहीं स्थापित करते थे, जैसा कि हमारे उदारवादी-बौद्धिक मित्र करते हैं।
मनुष्य का इतिहास पलायन, विस्थापन और यायावरी का इतिहास है, राष्ट्रीयताओं (नेशन-स्टेट के परिप्रेक्ष्य में) का उद्भव आधुनिकता की देन है और संस्कृतियाँ परस्पर समन्वय से उपजी हैं। अरब फ़लस्तीनियों के लिए है, इस आशय के वाक्य अगर किसी तबके को "हिंदुस्तान हिंदुओं के लिए है" की परिकल्पना तक ले जाता हो तो अचरज नहीं होना चाहिए, विशेषकर तब, जब भारत-विभाजन के बाद दो पूर्णरूपेण इस्लामिक राष्ट्रों के निर्माण ने एक धर्मनिरपेक्ष भारत की सम्भावनाओं को धरातल पर धूमिल कर दिया है, थ्योरिटिकली आप चाहे जितना उसका गुणानुवाद करते रहें।
अंत में- एक अवान्तर प्रसंग या क्षेपक के रूप में- चूँकि जब महात्मा गाँधी को उद्धृत करने का दौर इधर चल ही रहा है, तो क्यों ना महात्मा गाँधी को थोड़ा और उद्धृत किया जाए और राष्ट्रीयता के सम्बंध में उनके विचारों को और समझा जाए, जिनके बाद कुछ और कहने की ज़रूरत नहीं रह जाती। तो पढ़िये गांधी-वाणी-
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- 24 सितम्बर 1947
हिंदू-सिखों को पाकिस्तान से भगाया गया है। मैं सुनता हूं छोटे-छोटे बच्चों को भी यह सिखाया गया है। मुस्लिम लीग ने यह सिखाया और इसका मैं साक्षी हूँ कि हम तो लड़कर पाकिस्तान लेने वाले हैं, मशविरा करके नहीं, हिंदू और जितने ग़ैरमुसलमान हैं, उनके साथ मिन्नत करके नहीं। लेकिन यह कभी चल नहीं सकता। लड़कर क्या लेना था? लीग वालों ने ज़हरीली तक़रीरें कीं। मुझको पता है पाकिस्तान में क्या-क्या हुआ। मुसलमान सब हद से बाहर चले गए। उन्होंने सोचा कि अब तो हमारा राज्य हो गया तो है तो काटो-मारो।
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- 1 मई 1947
लीगी होकर भी सीमाप्रांत में लोग अगर जिन्ना साहब की बात नहीं मानते तो मैं कहूंगा कि जिन्ना साहब का यह परम धर्म है कि सब छोड़कर पहले उन लोगों को शांत करने का काम करें। अगर वे ऐसा नहीं करते तो क्यों नहीं करते? क्या इस तरह पाकिस्तान लेंगे? तलवार के ज़ोर से अगर कोई आदमी कुछ ले लेता है तो उससे बड़ी दूसरी तलवार से वह छीन लिया जाता है।
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- 31 मई 1947
अगर कोई कहता है कि नवाब-भोपाल मुसलमान है, इसलिए वह मुसलमान का राज कहलाएगा तो यह तनिक भी चलने वाला नहीं है। हिन्दुस्तान में कोई मुसलमान राजा यह नहीं कह सकता कि वह सब हिंदुओं को मार डालेगा। अगर वह ऐसा कहता है तो मैं उससे पूछूंगा कि अब तक वह क्यों हिंदुओं का राजा बनकर रहा? क्यों हिंदू प्रजा का अन्न खाया?
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- 12 सितम्बर 1947
मुसलमानों से मेरा कहना है कि आप साफ़ दिल से कह दें कि आप हिंदुस्तान के हैं। यूनियन के वफ़ादार हैं। अगर आपको इंडियन यूनियन में रहना है तो आप हिंदुओं के दुश्मन नहीं बन सकते। अगर आप पागल बनेंगे तो हम आपका साथ नहीं दे सकते। हम तो तिरंगे झंडे को सलाम करेंगे। यूनियन के वफ़ादार रहेंगे। मुसलमानों को चाहिए था पाकिस्तान, उन्हें मिल गया। पीछे क्यों लड़ते हैं, किसके साथ लड़ते हैं? पाकिस्तान मिल गया तो क्या सारा हिंदुस्तान ले लेंगे? वह कभी होने वाला नहीं है।
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- 25 दिसम्बर 1947
एक उर्दू मैगज़ीन में आज मैंने एक शेर देखा। वह मुझे चुभा। उसमें कहा है- "आज तो सबकी ज़बान पर सोमनाथ है। जूनागढ़ वग़ैरा का बदला लेने के लिए गज़नी से किसी नए गज़नवी को आना होगा।" यह बहुत बुरा है। यूनियन के किसी मुसलमान की क़लम से ऐसी चीज़ नहीं निकलनी चाहिए। गज़नवी ने जो किया था, बहुत बुरा किया था। इस्लाम में जो बुराइयां हुई हैं, उन्हें मुसलमानों को समझना और क़बूल करना चाहिए। यूनियन में बैठकर मुसलमान अगर अपने लड़कों को सिखावें कि गज़नवी को आना है तो उसका मतलब यह हुआ कि हिंदुस्तान को और हिंदुओं को खा जाओ। इसे कोई बरदाश्त करने वाला नहीं।
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- 24 जून 1947
पाकिस्तान बुरी चीज़ है, यह सब कोई कहता है। ऐसी हालत में वहां ख़ुशियां और धूमधाम मनाने वाली क्या चीज़ है? हमारे देश के टुकड़े करके भी उनको नक्कारा क्या बजाना था!
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