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किसकी होगी शिवसेना उद्धव ठाकरे या एकनाथ शिंदे, जानें क्या कहता है कानून?

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समर्थक विधायकों के साथ एकनाथ शिंदे


महाराष्ट्र में चल रहे पॉलिटिकल ड्रामे के बीच शिवसेना दो गुटों मे बंट गई है, एक गुट का नेतृत्व पार्टी प्रमुख और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे कर रहे हैं तो दूसरी ओर बागी नेता एकनाथ शिंदे ने अलग गुट बना ली है। किसके पास कितने विधायकों का समर्थन है, इसको लेकर अलग-अलग दावे किए जा रहे हैं. महाविकास अघाड़ी सरकार बचाने के लिए उद्धव तमाम प्रयास कर रहे हैं और इसके लिए एनसीपी-कांग्रेस उनके साथ हैं. लेकिन पूरे सियासी उथल-पुथल के बीच शिवसेना पार्टी में बंटवारे की संभावना बन रही है. कुछ राजनीतिक विश्लेषक शिवसेना का बंटवारा तय मान रहे हैं।


पार्टी में बंटवारा होता है तो यह कोई नई घटना नहीं होगी. इससे पहले रामविलास पासवान के निधन के बाद लोक जनशक्ति पार्टी में बंटवारा हो चुका है. उससे भी पहले समाजवादी पार्टी और एआईडीएमके भी दो गुटों में बंटकर अलग हो चुकी है. पार्टी का बंटवारा होने पर एक बड़ा सवाल ये होता है कि पार्टी का चुनाव चिह्न किसे मिलेगा. इसके कुछ नियम-कायदे होते हैं।


खबर है कि एकनाथ शिंदे गुट पार्टी के चुनाव चिह्न पर दावा ठोंकने की तैयारी में है. एकनाथ शिंदे ज्यादा से ज्यादा विधायकों का समर्थन दिखाते हुए चुनाव चिह्न ‘तीर-धनुष’ पर अपना दावा ठोंक सकते हैं. हालांकि यह जितना आसान दिखता है, उतना है नहीं! इसके लिए पूरी प्रक्रिया होती है, नियम होते हैं.. जिनके तहत चुनाव चिह्न पर फैसला लिया जाता है. आइए समझते हैं पूरी प्रक्रिया....



मोटे तौर पर ऐसे समझें

संसदीय मामलो के जानकार सिद्धार्थ झा बताते हैं कि राजनीतिक पार्टियों में बंटवारे की दो स्थितियां हैं. पहला, जब विधानसभा या संसद का सत्र चल रहा हो तो किसी पार्टी के विधायकों के बीच बंटवारे को पार्टी का बंटवारा माना जाता है. ऐसी स्थिति में दल-बदल कानून लागू होता है. इस हालात में फैसला लेने के लिए विधानसभा स्पीकर होते हैं. यानी निर्णय लेने का अधिकार उनके पास होता है.


दूसरी स्थिति ये है, जब संसद या विधानसभा का सत्र नहीं चल रहा हो. ऐसे में किसी भी पार्टी में होने वाला बंटवारा संसद या विधानसभा से बाहर का बंटवारा माना जाएगा. जैसे कि महाराष्ट्र में मौजूदा हालात दिख रहे हैं. इस परिस्थिति में अगर कोई गुट, पार्टी के चुनाव चिह्न पर दावा करता है तो इन पर सिंबल ऑर्डर 1968 लागू होता है. इसके जरिये यह तय होता है कि पार्टी में टूट के बाद कौन सा खेमा असली पार्टी है.


मोटा-मोटी ये समझें कि चुनाव आयोग, सिंबल्स ऑर्डर 1968 के तहत दावे और समर्थन के आधार पर और दोनों पक्षों को सुनकर फैसला लेता है. आयोग जरूरी समझे तो पार्टी सिंबल ​फ्रीज भी कर सकता है. ऐसे में कोई भी खेमा पार्टी सिंबल का इस्तेमाल नहीं कर पाता है.


अब विस्तार से समझें

संसद या विधानसभा के बाहर पार्टी में दो फांड़ होने की स्थिति में सिंबल्स ऑर्डर 1968 के तहत फैसला लिया जाता है. सिंबल ऑर्डर 1968 के पैरा 15 के मुताबिक, चुनाव आयोग अपनी संतुष्टि के आधार पर पार्टी के नाम और चुनाव चिह्न पर फैसला करता है. दोनों खेमों की स्थिति, उनकी शक्ति, विधायक या सांसदों की संख्या को ध्यान में रखते हुए चुनाव आयोग फैसला लेता है. इस दौरान सभी उपलब्ध साक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए चुनाव आयोग निर्णय ले सकता है।

  • आयोग किसी एक खेमे को चुनाव चिह्न देने का फैसला कर सकता है
  • आयोग चाहे तो चुनाव चिह्न को फ्रीज कर सकता है और किसी को भी नहीं देने का फैसला ले सकता है
  • चुनाव आयोग का निर्णय दोनों खेमों, वर्गों या समूहों पर लागू होता है और सभी उस फैसले को मानने के लिए बाध्य होते हैं


चुनाव आयोग का निर्णय दोनों खेमों, वर्गों या समूहों पर लागू होता है और सभी उस फैसले को मानने के लिए बाध्य होते हैं.

मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय या राज्य स्तरीय दलों के संबंध में ये नियम लागू होते हैं. वहीं गैर मान्यता वाली पार्टी के संबंध में आयोग इस तरह के विवाद के निपटारे के लिए कोर्ट की शरण में जाने की सलाह देता है.


1968 से पहले ऐसा हुआ था

वर्ष 1968 से पहले एक हाई प्रोफाइल बंटवारा हुआ था. यह बंटवारा हुआ था CPI यानी कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया में. तब यह मजबूत और बड़ी पार्टी हुआ करती थी. इसमें एक गुट ने 1964 में आयोग से संपर्क किया और खुद को CPI(M) यानी कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) के रूप में मान्यता देने का आग्रह किया. इस गुट ने आंध्र प्रदेश, केरल और पश्चिम बंगाल के उन सांसदों और विधायकों की लिस्ट भी दी थी, जो उनके खेमे में थे.


तब चुनाव आयोग 1961 के नियम के तहत कार्यकारी आदेश और नोटिफिकेशन जारी करता था. आयोग ने पाया कि अलग हुए समूह का समर्थन करने वाले वोट 3 राज्यों में 4 फीसदी से ज्यादा हैं. इसलिए आयोग ने इस गुट को CPI(M) के रूप में मान्यता दे दी.


जब कांग्रेस में हुआ ​था दो फांड़ और निकाल दी गईं इंदिरा

साल था 1969. कांग्रेस में एक गुट के साथ इंदिरा गांधी का तनाव सामने आया. 3 मई 1969 को जब तत्कालीन राष्ट्रपति डॉक्टर जाकिर हुसैन की निधन की खबर आई. के कामराज, नीलम संजीव रेड्डी, एस निजलिंगप्पा और अतुल्य घोष के नेतृत्व में पुराना धड़ा था. वहीं तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उपराष्ट्रपति वीवी गिरि को निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने को कहा. उन्होंने पार्टी अध्यक्ष निजलिंगप्पा द्वारा जारी किए गए व्हिप की अवहेलना करते हुए पार्टी सांसदों और विधायकों से स्वविवेक से वोट करने का आह्वान किया. वीवी गिरि जीत गए और तब इंदिरा को ही कांग्रेस से निकाल दिया गया.


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तब देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस, निजलिंगप्पा के नेतृत्व वाली पुरानी कांग्रेस (ओ) और इंदिरा के नेतृत्व वाली नई कांग्रेस (जे) में विभाजित हो गई. पुरानी कांग्रेस ने बैलों के जोड़े वाले चुनाव चिह्न को बरकरार रखा, वहीं नए गुट को बछड़े के साथ गाय का प्रतीक चिह्न दिया गया था.

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