महाराष्ट्र सरकार की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी ने जस्टिस अशोक भूषण की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ से कहा कि कोटा की सीमा तय करने पर मंडल मामले में (शीर्ष न्यायालय के) फैसले पर बदली हुई परिस्थितियों में पुनर्विचार करने की जरूरत है। उन्होंने ये भी कहा की आजादी को 70 साल हो चले है और राज्य सरकारें कई जन-कल्याणकारी योजनाएं चला रही हैं, ‘क्या हम स्वीकार कर सकते हैं कि कोई विकास नहीं हुआ है,कोई पिछड़ी जाति आगे नहीं बढ़ी है’
काश उनकी कही बात सच होती और सही में विकास की दर भी 70 साल जितनी ही बढ़ी होती पर अफसोस ऐसा नहीं है! मैं माननीय जस्टिस अशोक भूषण की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ से ये कहना चाहता हूं कि यह आरक्षण कोई भीख नहीं है, ये संवैधानिक अधिकार है।
आरक्षण संरक्षण व न्यूनतम प्रतिनिधित्व की व्यवस्था है जिससे सरकारी विभागों के उच्च पदों तक समाज के निचले तबके की हिस्सेदारी सुनिश्चित हो सके, उन्हें वो सम्मान मिले जिसके हक़दार हैं। आरक्षण कोई गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है आरक्षण इसलिए दिया गया ताकि वंचित समाज का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जा सके।
चलिए, मान लेते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जमीनी स्थिति से जुड़े नहीं रहते हैं लेकिन क्या वो अपने आसपास देखकर बता पाएंगे कि कितने दलित पिछड़ों को न्यायाधीश के रूप में कितना प्रतिनिधित्व मिल पाया है? सुप्रीम कोर्ट में 29 जज हैं और इनमें से सिर्फ 1 अनुसूचित जाति और एक पिछड़ा वर्ग से हैं।
यदि अन्य क्षेत्रों की बात करें तो शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण के आंकड़े ये बताते हैं कि देश की 40 सेंट्रल यूनिवर्सिटी में 95 फीसदी प्रोफेसर सवर्ण जातियों से हैं और दलित समाज से 4 फीसदी, आदिवासी समुदाय की तो मात्र 0.7 फीसदी यानी एक फीसदी से भी कम भागीदारी है।
92 फीसदी एसोसिएट प्रोफेसर सवर्ण हैं, 5 फीसदी दलित और 1.30 फीसदी आदिवासी है जबकि सबसे अधिक आबादी होने के बावजूद ओबीसी दोनों जगह शून्य हैं, यहां से धरातल पर आरक्षण का कितना फायदा मिला है, उसका आकलन कर सकते हैं।
ऑक्सफेम इंडिया के 2019 के एक सर्वे के अनुसार भारत में मीडिया में 80 प्रतिशत से ज्यादा सवर्ण जाति के लोग हैं, शेयर बाजार में दलितों की संख्या लगभग शून्य के बराबर है, निजी क्षेत्र में कहीं भी दलित आदिवासी निर्णायक स्थिति में नहीं हैं। आज भी सभी बड़े संस्थानों में सवर्ण जाति के लोग 70 से 80 प्रतिशत निर्णायक की कुर्सियों पर बैठे हैं, वहीं एससी/एसटी/ओबीसी इन बड़े संस्थानों/कार्यालयों में मात्र 20-30 प्रतिशत हैं।
इसी से जान लीजिए कि न्यायाधीश जिन समाज कल्याण की योजनाओं के फायदे की बात कर रहे हैं उनका कितना फायदा हुआ है! क्या यह इस बात का सबसे ठोस प्रमाण नहीं है कि आरक्षण को सही तरीके से लागू ही नहीं किया गया है और जो स्थान दलित-पिछड़ों को मिलना चाहिए था वो अब तक नहीं मिला है लेकिन उसके बाद भी लगातार सुप्रीम कोर्ट द्वारा आरक्षण पर टिप्पणी की जाती रही है।
केरल उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस वी. चिताम्बरेश तो ब्राह्मणों को आरक्षण के खिलाफ आंदोलन करने की नसीहत तक दे चुके हैं, क्या इससे ये पता नहीं चलता कि न्यायपालिका में दलितों के लिए जातिवाद और घृणा किस प्रकार व्याप्त है और वो पूर्वाग्रह से ग्रसित है?
सवाल तो ये भी बनता है कि आखिर कब तक सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में कॉलेजियम प्रणाली के तहत सिर्फ सवर्ण जजों को चुना जाता रहेगा? क्या ये भी एक तरह का आरक्षण नही है?
आखिर आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी देश में जातीय भेदभाव होता है इस पर न्यायालय कभी क्यों चिंता नहीं करता है? दलित-पिछड़ों-आदिवासियों को अब तक उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया, कभी इस पर न्यायालय चिंता क्यों जाहिर नहीं करता?छुआछूत को असंवैधानिक करार दिए जाने के बावजूद ये आज तक क़ायम है क्या कभी इस पर सुप्रीम कोर्ट संज्ञान लेगा?
आरक्षण सिर्फ आर्थिक रूप से ही नहीं अपितु मानसिक रूप से संरक्षण प्रदान करता है, भारत में जाति अब भी व्यक्ति के जीवन में अहम किरदार निभा रही है, मैं मानता हूं कि इंदिरा साहनी मामले में फैसला 30 साल पुराना हैं, कानून बदल गया है, आबादी बढ़ गई है, पिछड़े लोगों की संख्या भी बढ़ गई है पर देश जब तक जातिवाद के पिछड़ेपन से बाहर नहीं निकलता तब तक आरक्षण को हटाना एकदम गलत है।
संसद और विधानसभाओं में वंचित तबकों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया गया ताकि विविधता आए और हर बड़े निर्णय में उनकी सहभागिता हो और वो अपना पक्ष रख सकें।
सुप्रीम कोर्ट ने 50 प्रतिशत की सीमा हटाए जाने की स्थिति में पैदा होने वाली असमानता को लेकर भी चिंता प्रकट की, पर अब समय ये है कि यही सुप्रीम कोर्ट भी अपने संस्थान में हो रही असमानता के बारे में सोचे और संसद व विधानसभाओं की तरह ही वंचित समाज का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करें।
ऐसा करने से न्यायालय के फैसलों में विविधता भी आएगी और देश के आदिवासी, दलित, पिछड़ों का न्यायपालिका पर भरोसा भी बढ़ेगा।

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