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पत्रकार विनोद दुआ पर राजद्रोह केस सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया, आखिर ये मामला क्या है और राजद्रोह कानून क्या है ?

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सुप्रीम कोर्ट ने वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ पीएम मोदी के खिलाफ कथित टिप्पणी के लिए दायर राजद्रोह के मामले को रद्द करने का आदेश दिया है।

कोर्ट ने कहा कि 1962 के फैसले के तहत पत्रकारों को राजद्रोह के मामलों में सुरक्षा का अधिकार है, प्राथमिकी में आरोप लगाया गया कि दुआ ने झूठी सूचना फैलाने की कोशिश की कि सरकार के पास सीओवीआईडी ​​​​-19 के लिए पर्याप्त परीक्षण सुविधाएं नहीं हैं।

विनोद दुआ के ख़िलाफ़ केस ख़ारिज

3 जून को सुप्रीम कोर्ट ने पत्रकार विनोद दुआ के ख़िलाफ़ हिमाचल प्रदेश के शिमला में दर्ज राजद्रोह के मामले को ख़ारिज कर दिया. दुआ के ख़िलाफ़ हिमाचल प्रदेश के एक स्थानीय भाजपा नेता ने उनके यूट्यूब शो को लेकर मामला दर्ज कराया था.

दुआ पर राजद्रोह सहित भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत आरोप लगाया गया था और भाजपा नेता ने दावा किया था कि दुआ ने 30 मार्च, 2020 को अपने 15 मिनट के यूट्यूब शो में अजीबोगरीब आरोप लगाए थे और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर वोट पाने के लिए "मौतों और आतंकी हमलों" का इस्तेमाल करने का आरोप लगाया था.

इस मामले ने अदालत ने कहा कि प्रत्येक पत्रकार केदार नाथ सिंह के फ़ैसले के तहत सुरक्षा का हकदार है जिसमे धारा 124 ए के तहत राजद्रोह के अपराध के दायरे को परिभाषित किया गया है.

क्या है राजद्रोह का क़ानून?

भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए के अनुसार, जब कोई व्यक्ति बोले गए या लिखित शब्दों, संकेतों या दृश्य प्रतिनिधित्व द्वारा या किसी और तरह से घृणा या अवमानना या उत्तेजित करने का प्रयास करता है या भारत में क़ानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति असंतोष को भड़काने का प्रयास करता है तो वह राजद्रोह का आरोपी है.

राजद्रोह एक ग़ैर-जमानती अपराध है और इसमें सज़ा तीन साल से लेकर आजीवन कारावास और जुर्माना है.

केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (1962) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 124ए के बारे में कहा था कि इस प्रावधान का इस्तेमाल "अव्यवस्था पैदा करने की मंशा या प्रवृत्ति, या क़ानून और व्यवस्था की गड़बड़ी, या हिंसा के लिए उकसाने वाले कार्यों" तक सीमित होना चाहिए.

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने अपने फ़ैसले में आईपीसी के तहत राजद्रोह क़ानून की वैधता को बरकरार रखा था और इसके दायरे को भी परिभाषित किया था. अदालत ने कहा था कि धारा 124ए केवल उन शब्दों को दंडित करता है जो क़ानून और व्यवस्था को बिगाड़ने की मंशा या प्रवृत्ति को प्रकट करते हैं या जो हिंसा को भड़काते हैं. उसी समय से इस परिभाषा को धारा 124ए से संबंधित मामलों के लिए मिसाल के तौर पर लिया जाता रहा है.

क्या सरकार की आलोचना करना राजद्रोह है?

1962 में सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया। हालांकि, केदारनाथ सिंह बनाम बिहार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इस धारा को बरकरार रखा। इसे असंवैधानिक बताते हुए इसे रद्द करने से इनकार कर दिया। लेकिन इस धारा की सीमा तय कर दी गई है।

अदालत ने स्पष्ट किया कि केवल सरकार की आलोचना करने को राजद्रोह नहीं माना जा सकता। ऐसे मामले में जहां किसी भाषण या लेख का उद्देश्य सीधे सरकार या देश के खिलाफ हिंसा भड़काना है, इसे इस धारा के तहत अपराध माना जा सकता है।बाद में 1995 में, बलवंत सिंह मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने भी खालिस्तान समर्थक नारे लगाने वालों को इस आधार पर रिहा कर दिया था कि उन्होंने केवल नारे लगाए थे।

राजद्रोह के सबसे ज्यादा मामले कहां दर्ज हुए?

2010 से 2020 तक कुल 816 राजद्रोह के मामलों में 10,938 भारतीयों को आरोपी बनाया गया है। इनमें से 65 फीसदी मामले एनडीए सरकार में दर्ज किए गए।

2010-14 के बीच 3762 भारतीयों के खिलाफ 279 मामले दर्ज किए गए। वहीं 2014-20 के बीच 7136 लोगों के खिलाफ 519 मामले दर्ज किए गए। इन 10 सालों में सबसे ज्यादा 65 फीसदी (534) मामले पांच राज्यों में दर्ज किए गए।

ये राज्य हैं- बिहार, कर्नाटक, झारखंड, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु। बिहार में 168, तमिलनाडु में 139, उत्तर प्रदेश में 115, झारखंड में 62 और कर्नाटक में 50 मामले दर्ज किए गए।

जब राजद्रोह के सबसे ज्यादा मामले दर्ज हुए

यूपीए सरकार के दौरान साल 2011 में सबसे ज्यादा राजद्रोह के मामले दर्ज किए गए थे। तब कुंदन स्तंभ परमाणु विरोध प्रदर्शन चल रहा था। कुल 130 मामले दर्ज किए गए।

इसके बाद सबसे ज्यादा मामले 2019 और 2020 में दर्ज किए गए, जब पूरे देश में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के खिलाफ विरोध प्रदर्शन चल रहे थे। 2019 में 118 और 2020 में 107 मामले दर्ज किए गए।

2020 में दिल्ली दंगों, कोरोना संकट और हाथरस रेप केस को लेकर भी राजद्रोह कानून चर्चा में रहा है।


 

                           

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